Monday, January 25, 2016

अशोक बिन्दुसार मौर्य

राजकाल ३०४ ईसा पूर्व से २३२ ईसा पूर्व
राज्याभिषेक २७० ईसा पूर्व
जन्म ३०४ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना
मृत्यु २३२ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना
उत्तराधिकारी दशरथ मौर्य
पत्नी देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी)
कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता)
असंधिमित्रा - अग्रमहिषी,
पद्मावती
तिष्यरक्षिता

वंश मौर्य
पिता बिन्दुसार
माता सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा)
अशोक महान का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय)। (राजकाल ईसापूर्व 273-232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का चक्रवर्ती राजा था। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।

जीवन के उत्तरार्ध में अशोक तथागत बुद्ध(सिद्धार्थ गौतम) की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति मे उन्होने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - मे मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रील में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे


आरंभिक जीवन
अशोक मौर्य सम्राट बिन्दुसार तथा रानी धर्मा का
पुत्र था। लंका की परम्परा में बिंदुसार की सोलह
पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल
तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - सुसीम जो सबसे बड़ा था,
अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और
सबसे छोटा था।एक दिन उसको स्वप्न आया उसका बेटा
एक बहुत बड़ा सम्राट बनेगा। उसके बाद उसे राजा
बिन्दुसार ने अपनी रानी बना लिया। चुँकि धर्मा कोई
क्षत्रिय कुल से नहीं थी अतः उसको कोई विशेष स्थान
राजकुल में प्राप्त नहीं था। अशोक के कई (सौतेले) भाई -
बहने थे। बचपन में उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी। अशोक
के बारे में कहा जाता है कि वो बचपन से सैन्य
गतिविधियों में प्रवीण था। दो हज़ार वर्षों के पश्चात्,
अशोक का प्रभाव एशिया मुख्यतः भारतीय
उपमहाद्वीप में देखा जा सकता है। अशोक काल में उकेरा
गया प्रतीतात्मक चिह्न, जिसे हम ' अशोक चिह्न ' के
नाम से भी जानते हैं, आज भारत का राष्ट्रीय चिह्न है।
बौद्ध धर्म के इतिहास में गौतम बुद्ध के पश्चात् अशोक
का ही स्थान आता है।
दिव्यदान में अशोक की एक पत्नी का नाम
'तिष्यरक्षिता' मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी
पत्नी 'करूणावकि' है। दिव्यादान में अशोक के दो
भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है।

साम्राज्य-विस्तार
अशोक का ज्येष्ठ भाई सुशीम उस समय तक्षशिला का
प्रांतपाल था। तक्षशिला में भारतीय-यूनानी मूल के
बहुत लोग रहते थे। इससे वह क्षेत्र विद्रोह के लिए उपयुक्त
था। सुशीम के अकुशल प्रशासन के कारण भी उस क्षेत्र में
विद्रोह पनप उठा। राजा बिन्दुसार ने सुशीम के कहने पर
राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ
भेजा। अशोक के आने की खबर सुनकर ही विद्रोहियों ने
उपद्रव खत्म कर दिया और विद्रोह बिना किसी युद्ध के
खत्म हो गया। हालाकि यहाँ पर विद्रोह एक बार फिर
अशोक के शासनकाल में हुआ था, पर इस बार उसे बलपूर्वक
कुचल दिया गया।
अशोक का साम्राज्य
अशोक की इस प्रसिद्धि से उसके भाई सुशीम को
सिंहासन न मिलने का खतरा बढ़ गया। उसने सम्राट
बिंदुसार को कहकर अशोक को निर्वास में डाल दिया।
अशोक कलिंग चला गया। वहाँ उसे मत्स्यकुमारी
कौर्वकी से प्यार हो गया। हाल में मिले साक्ष्यों के
अनुसार बाद में अशोक ने उसे तीसरी या दूसरी रानी
बनाया था।
इसी बीच उज्जैन में विद्रोह हो गया। अशोक को सम्राट
बिन्दुसार ने निर्वासन से बुला विद्रोह को दबाने के
लिए भेज दिया। हालाकि उसके सेनापतियों ने विद्रोह
को दबा दिया पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई
क्योंकि मौर्यों द्वारा फैलाए गए गुप्तचर जाल से उसके
बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुशीम द्वारा उसे
मरवाए जाने का भय था। वह बौद्ध सन्यासियों के साथ
रहा था। इसी दौरान उसे बौद्ध विधि-विधानों तथा
शिक्षाओं का पता चला था। यहाँ पर एक सुन्दरी,
जिसका नाम देवी था, उससे अशोक को प्रेम हो गया।
स्वस्थ होने के बाद अशोक ने उससे विवाह कर लिया।
कुछ वर्षों के बाद सुशीम से तंग आ चुके लोगों ने अशोक
को राजसिंहासन हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित
किया, क्योंकि सम्राट बिन्दुसार वृद्ध तथा रुग्ण हो चले
थे। जब वह आश्रम में थे तब उनको खबर मिली की उनकी
माँ को उनके सौतेले भाईयों ने मार डाला, तब उन्होने
महल मे जाकर अपने सारे सौतेले भाईयों की हत्या कर दी
और सम्राट बने।
सत्ता संभालते ही अशोक ने पूर्व तथा पश्चिम, दोनों
दिशा में अपना साम्राज्य फैलाना शुरु किया। उसने
आधुनिक असम से ईरान की सीमा तक साम्राज्य केवल
आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया।
कलिंग
लड़ाईलड़ाई
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष (२६१ ई. पू.) में
कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से
निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत् अभिषेक हुआ
तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५०
हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक
लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने
भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित
होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा
धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया।
उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित
हो गया। उसने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर
देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म
विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म
स्वीकार किया।
सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार
अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक
भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी।
तत्पश्चात् मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः
बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को
बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध
भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में
सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने
राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की
थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त घोषित कर दिया


बौद्ध धर्म अंगीकरण
तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा
बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उसका मन लड़ाई
करने से उब गया और वह अपने कृत्य से व्यथित हो गया।
इसी शोक में वो बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और
उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
बौद्ध धर्म स्वीकीर करने के बाद उसने उसको अपने जीवन
मे उतारने की कोशिश भी की। उसने शिकार तथा पशु-
हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों अन्य
सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान दिया।
जनकल्याण के लिए उसने चिकित्यालय, पाठशाला तथा
सड़कों आदि का निर्माण करवाया।
उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने धर्म प्रचारक
नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान , सीरिया , मिस्र तथा
यूनान तक भेजे। उसने इस काम के लिए अपने पुत्र ओर पुत्री
को यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों मे
सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र
ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म मे दीक्षित
किया, जिसने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना
दिया। अशोक से प्रेरित होकर उसने अपनी उपाधि
'देवनामप्रिय' रख लिया।



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