Sunday, January 31, 2016

भारत में महिलाएँ


भारत में महिलाएँ
भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है।[4][5] प्राचीन काल[6] में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल[7] के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक, भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। आधुनिक भारत में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं।

इतिहास

विशेष रूप से महिलाओं की भूमिका की चर्चा करने वाले साहित्य के स्रोत बहुत ही कम हैं ; 1730 ई. के आसपास तंजावुर के एक अधिकारी त्र्यम्बकयज्वन का स्त्रीधर्मपद्धति इसका एक महत्वपूर्ण अपवाद है। इस पुस्तक में प्राचीन काल के अपस्तंब सूत्र (चौथी शताब्दी ईपू) के काल के नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को संकलित किया गया है।[8] इसका मुखड़ा छंद इस प्रकार है:

मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानम हि :
स्त्री का मुख्य कर्तव्य उसके पति की सेवा से जुडा हुआ है।
जहाँ सुश्रूषा शब्द (अर्थात, “सुनने की चाह”) में ईश्वर के प्रति भक्त की प्रार्थना से लेकर एक दास की निष्ठापूर्ण सेवा तक कई तरह के अर्थ समाहित हैं।[9]

प्राचीन भारत
विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था।[10] हालांकि कुछ अन्य विद्वानों का नज़रिया इसके विपरीत है।[11] पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल[12][13] में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी।[14] ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।[15]

प्राचीन भारत के कुछ साम्राज्यों में नगरवधु (“नगर की दुल्हन”) जैसी परंपराएं मौजूद थीं। महिलाओं में नगरवधु के प्रतिष्ठित सम्मान के लिये प्रतियोगिता होती थी। आम्रपाली नगरवधु का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण रही है।

अध्ययनों के अनुसार प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और अधिकार मिलता था।[16] हालांकि बाद में (लगभग 500 ईसा पूर्व में) स्मृतियों (विशेषकर मनुस्मृति) के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हो गयी और बाबर एवं मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया.[7]

हालांकि जैन धर्म जैसे सुधारवादी आंदोलनों में महिलाओं को धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होने की अनुमति दी गयी है, भारत में महिलाओं को कमोबेश दासता और बंदिशों का ही सामना करना पडा है।[16] माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा छठी शताब्दी के आसपास शुरु हुई थी।[17]

मध्ययुगीन काल
चित्र:Pastimes15.jpg
देवी राधारानी के चरणों में कृष्ण
समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आयी[10][7] जब भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने परदा प्रथा को भारतीय समाज में ला दिया. राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियां या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।[17] कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था।

इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की.[7] रज़िया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं. गोंड की महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था। चांद बीबी ने 1590 के दशक में अकबर की शक्तिशाली मुगल सेना के खिलाफ़ अहमदनगर की रक्षा की. जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की. मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्ध कवियित्रियाँ थीं और उन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को भी प्रभावित किया। शिवाजी की माँ जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरुआत की.[17]

भक्ति आंद

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